Class 12 Chemistry Chapter 5 उपसहसंयोजन योगिक Part 4 उपसहसंयोजन योगिक का ही एक अहम् भाग है | अगर आप इस इकाई अथवा पाठ को अच्छे से अध्ययन करना चाहते है तो हम आपसे यही अनुरोध करते है कि आप इस बहुत बड़ी इकाई को छोटे छोटे part में पढ़े | यही वजह है कि हम आपको यहाँ पर part वाइज नोट्स Provide कर रहे है | इस part में जो भी महत्वपूर्ण हैडिंग है उन्हें जरूर याद करे | क्यूंकि ये ही आपको अच्छे मार्क्स प्राप्त करने में मदद करेंगी |
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Class 12 Chemistry Chapter 5 उपसहसंयोजन योगिक Part 4
Class 12 Chemistry Chapter 5 उपसहसंयोजन योगिक Part 4 में हम बोर्ड में पूछे गये कम से कम 3 से 5 मार्क्स का अध्ययन करेंगे | अत: आप इन्हें ध्यान से पढ़े | अगर आप कुछ समस्या महसूस करते है तो आप हमे सम्पर्क कर सकते हो और आप Ask Question पर क्लिक करके प्रश्न भी पूछ सतके हो | हम आपसे ये गुजारिश करते है कि आप इन महत्वपूर्ण हैडिंग को अवस्य याद करेंगे | क्यूंकि ये वो सभी हैडिंग है जो पिछले बहुत सालो के पेपर में रिपीट हुई है | अगर आप इन्हें याद करके एग्जाम में बैठते है तो आप 90 % से अधिक अंक हासिल कर सकते है |
Class 12 Chemistry Chapter 5 उपसहसंयोजन योगिक Part 4 में महत्वपूर्ण Headings निम्नलिखित है | इन्हें अच्छे से याद करे | ये आपको अच्छे अंक दिलाने में मदद करेगी:
- त्रिविम समावयवता और इसके प्रकार
- ज्यामितीय समावयवता व समपक्ष समावयवता और विपक्ष समावयवता
- प्रकाशिक ध्रुवण समावयवता और D व L रूप
- उपसहसंयोजन योगिको के लिए वर्नर का सिद्धांत
- प्राथमिक संयोजकता और द्वितीयक संयोजकता
- वर्नर सिधात के अनुसार कुछ योगिको की सरंचना
- वर्नर सिधात की सीमाए
त्रिविम समावयवता और इसके प्रकार
त्रिविम समावयवता: जब दो या दो से अधिक संकुल उप सहसंयोजक योगिको का अणु सूत्र समान हो परन्तु उनके केंदीय धातु परमाणु से बंधित लिगेंडो की आकाशीय (त्रिविमीय) व्यवस्था भिन्न हो तो वे त्रिविम समावयवी कहलाते है , और इस परिघटना को त्रिविम समावयवता कहते है |
जैसे :
एकद्न्ति लिगेंड उप सहसंयोजन योगिक दो प्रकार की त्रिविम समावयवता प्रदर्शित करते है :
1: ज्यामितीय समावयवता
2: प्रकाशिक ध्रुवण समावयवता
ज्यामितीय समावयवता व समपक्ष समावयवता और विपक्ष समावयवता
1: ज्यामितीय समावयवता : वह समावयवता जो केंदीय धातु आयन के चारो ओर लिगेंड़ो की आकाशीय व्यवस्था की विभिन्न स्थितियो के कारण होती है, ज्यामितीय समावयवता कहलाती है | ये सामानयत: दो प्रकार की होती है :
अ) समपक्ष समावयवता
ब) विपक्ष समावयवता
अ) समपक्ष समावयवता : जब दो समान लिगेंड़ो (L) के मध्य कोण 90 डिग्री होता है तो इन्हें समपक्ष समावयवी कहेंगे और इस समवयवता को समपक्ष समावयवता कहते है |
ब) विपक्ष समावयवता : जब दो समान लिगेंड़ो (L) के मध्य कोण 180 डिग्री होता है तो इन्हें विपक्ष समावयवी कहेंगे और इस समवयवता को विपक्ष समावयवता कहते है |
प्रकाशिक ध्रुवण समावयवता और D व L रूप
2: प्रकाशिक ध्रुवण समावयवता: वे योगिक जिनके भोतिक एवं रासायनिक गुण समान होते है, परन्तु जिनका व्यवहार ध्रुवित प्रकाश के प्रति भिन्न होता है, प्रकाशिक ध्रुवण समावयवी कहलाते है , और इस घटना को प्रकाशिक ध्रुवण समावयवता कहते है |
D व L- रूप (दक्षिण और वाम ध्रुवण घूर्णक) : समावयवी जो की ध्रुवित प्रकाश के तल को दायीं ओर अथवा घडी की दिशा में घुमाते है, दक्षिण ध्रुवण घूर्णक या D- रूप कहलाते है | जबकि जो ध्रुवित प्रकाश के तल को बांयी ओर अथवा घडी की विपरीत दिशा में घुमाते है, वाम ध्रुवण घूर्णक या L- रूप कहलाते है |
उपसहसंयोजन योगिको के लिए वर्नर का सिद्धांत
उपसहसंयोजन योगिको के लिए वर्नर का सिद्धांत :- सन 1893 में अल्फ्रेड वर्नर ने अपने प्रयोगों और निष्कर्षो के आधार पर संकुल योगिको के अस्तित्व व उनके आबन्धो की प्रक्रति को समझाने के लिए एक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे वर्नर का सिद्धांत कहा गया | इस सिधांत के लिए सन 1991 में इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया | इस सिद्धांत के अनुसार निम्न लिखित अवधारणाये थी –
- संकुल में उपस्थित धातु परमाणु दो प्रकार की संयोजकता प्रदर्शित करती है जो क्रमश: प्राथमिक व द्वितीय संयोजकता कहलाती है|
- संकुल योगिक में प्रत्येक धातु अपनी प्राथमिक व द्वितीयक संयोजकता को संतुष्ट करता है|
- जब संकुल योगिक को जल में घोला जाता है , तो प्राथमिक संयोजकता से जुड़े ऋण आयन अयनित हो जाते है|
- प्राथमिक संयोजकता अदिशात्म्क , जबकि द्वितीयक संयोजकता दिशात्मक होती है|
प्राथमिक संयोजकता और द्वितीयक संयोजकता
प्राथमिक संयोजकता :– यह सरल लवणों में धातु की संयोजकता या ऑक्सीकरण अवस्था पर निर्भर करती है , जो केवल ऋणात्मक आयनों द्वारा ही संतुष्ट होती है , यह आयनन योग्य तथा अदिशात्म्क होती है | इसे बिंदु रेखा से प्रदर्शित करते है | अदिशात्म्क प्रक्रति के कारण यह संकुल योगिको की ज्यामिति के लिए उत्तदायी नही होती है |
द्वितीयक संयोजकता :- यह संकुल योगिको में धातु की उपसहसंयोजन संख्या को व्यक्त करती है जो ऋणात्मक आयनों या उदासीन अणुओ तथा कभी कभी धनात्मक समूहों द्वारा संतुस्ष्ट होती है |यह आयनन योग्य नही होती है , परन्तु दिशात्मक होती है| इसे रेखा के द्वारा प्रदर्शित करते है | अत: यह संकुल की ज्यामिति को निर्धारित करती है |
वर्नर सिधात के अनुसार कुछ योगिको की सरंचना
वर्नर सिधात के अनुसार कुछ योगिको की सरंचना :-
वर्णन सिद्धांत के आधार पर कुछ संकर योगिको की संरचनाएं निम्न हैं :
1: CoCl3.6NH3 – इस संकर में कोबाल्ट की ऑक्सीकरण अवस्था + 3 है। इसलिए इसकी प्राथमिक संयोजकता 3 है। परंतु प्रायोगिक रूप से यह ज्ञात हुआ कि संकर का एक मोल विलियन में क्लोरीन अयान के 3 मोल देता है इसलिए इसमें उपस्थित 3 क्लोरीन परमाणु आयन केंद्रीय कोबाल्ट से प्राथमिक संयोजकता द्वारा जुड़े होने चाहिए अतः कोबाल्ट की उपसहसंयोजन संख्या 6 है । इसलिए इसकी द्वितीय संयोजकता भी 6 ही होगी। इस प्रकार अमोनिया के 6 अणु कोबाल्ट से द्वितीय संयोजकता द्वारा जुड़ने चाहिए । अतः इसकी वर्णन सिद्धांत के आधार पर संरचना निम्न होगी :
2: CoCl3.5NH3 : – इस संकर योगिक में कोबाल्ट की ऑक्सीकरण अवस्था +3 है अतः इसकी प्राथमिक संयोजकता 3 होगी और सभी क्लोरीन परमाणु कोबाल्ट से प्राथमिक संयोजकता द्वारा जुड़े ही रहेंगे । शेष 5 अमोनिया अणु कोबाल्ट से द्वितीय संयोजकता द्वारा जुड़े होंगे क्योंकि कोबाल्ट की उपसंयोजकता संख्या 6 होती है, इसलिए द्वितीय संयोजकताओ की संख्या भी 6 ही होगी । इसमें एक क्लोरीन परमाणु जो पहले से ही कोबाल्ट के साथ प्राथमिक संहिता द्वारा जुड़ा है वह द्वितीय संयोजकता द्वारा भी जुड़ेगा इस प्रकार इसकी संरचना निम्न होगी:
वर्नर सिधात की सीमाए
वर्नर सिधात की सीमाए:-
- कुछ निश्चित धातु ही संकुल योगिक बनाते है , जबकि अन्य नही |
- संकुल योगिको में दिशात्मक लक्ष्ण क्यों पाए जाते है|
- संकुल योगिक चुम्कीय और प्रकाशीय गुण क्यों प्रदर्शित करते है |